दृष्टि (गुरुकुल)

आज विश्व में बहुत भौतिक विकास हो चुका है। किन्तु यह विकास अनेक समस्याओं को भी साथ में लेकर आया है। मनुष्य की नैसर्गिक (नैचुरल) जीवन शैली प्रायः नष्ट हो चुकी है। सुविधाएं अवश्य बढ़ रही हैं किन्तु जिस सुख एवं शांति के लिए हम इन सुविधाओं को बढ़ा रहे हैं, वे ही सुख एवं शांति हम से दूर होते जा रहे हैं। इस विषय में हम अपने पूर्वजों के विचारों पर दृष्टि डालें। आचार्य चाणक्य कहते हैं – धर्म, अर्थ एवं काम इन तीनों में से किसी एक का अधिक सेवन करने से वह स्वयं को तथा बाकी दोनों को भी नष्ट कर देता है। अतः तीनों के सेवन में हमें अवश्य संतुलन बनाना होगा, अर्थात् हमें धर्मपूर्वक अर्थ का उपार्जन करना होगा, अर्थ का नाश न हो इस प्रकार धर्म का आचरण करना होगा, धर्म और अर्थ की हानि न हो, इस प्रकार कामनाओं का सेवन करना होगा। धर्म और अर्थ के उपार्जन के समय हम आवश्यक सुख एवं सुविधाओं से वंचित न हों। किन्तु वर्तमान समय में जो हम विकास कर रहे हैं, जिस प्रकार हम धन कमा रहे हैं, सुख सुविधाओं का उपयोग कर रहे हैं, वह सब धर्म विरुद्ध कर रहे हैं। वेद में कहा है कि इस संसार में विभिन्न प्रकार की वस्तुओं से व व्यवस्थाओं से हम लाभ उठावें। किन्तु साथ ही साथ हमें पूरे संसार में शांति व संतुलन बनाकर रखना होगा। आज हम बिल्कुल इसके विपरीत आचरण कर रहे हैं। हम चंद्रमा व मंगल ग्रह पर मनुष्य के जीवन की संभावनाओं का अन्वेषण कर रहे हैं। हम अपने बच्चों के सुखमय जीवन के लिए पर्याप्त संपत्ति इकट्ठा कर रहे हैं। किन्तु इस धरती को जीवन के योग्य नहीं छोड़ रहे हैं। ऐसी स्थिति में यह सारी संपत्ति किस काम की? आज आवश्यकता है कि हम इस धरती पर पुनः नैसर्गिक जीवन के लिए अनुकूल वातावरण बनावें। हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि हम व हमारे बच्चे शुद्ध एवं स्वच्छ हवा का श्वसन कर सकें। जिस प्रकार हम भोजन से पूर्व ‘अन्नपते…’ मंत्र बोलकर पुष्टिकारक एवं रोगनाशक अन्न की कामना करते हैं, उसी प्रकार गाय का घी, दूध, दही तथा प्राकृतिक, विषरहित विविध प्रकार का अन्न, फल-सब्जी आदि पर्याप्त मात्रा में प्राप्त कर सकें। अपने परिवार व मित्र- सम्बन्धियों के साथ दृढ़ एवं मधुर संबन्ध स्थापित कर सकें। जीवन को सुखमय बनाने के लिए आवश्यक साधनों का प्रयोग करें, किन्तु साधनों के दास न बनें। इस प्रकार की जीवन पद्धति जिसको हमारे पूर्वजों ने विकसित किया था उसको हमने विगत कुछ समय से नष्ट कर दिया है। अतः उसको पुनः स्थापित करने की महती आवश्यकता है। इसी दिशा में एक बृहत् विद्याकेन्द्र (गुरुकुल एवं संस्कारशाला) की स्थापना करने का संकल्प है, जहां जीवन के प्रत्येक क्षेत्र से जुड़े हुए विषयों का अध्ययन-अध्यापन-प्रशिक्षण के द्वारा एक नए समाज की संरचना हो सके, जिसमें व्यक्ति वास्तविक सर्वांगीण विकास करता हुआ अपने जीवन को सार्थक बना सके। इस विद्याकेन्द्र का लक्ष्य मुख्यरूप से धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष इन चारों का यथार्थ स्वरूप तथा उनको प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान कराना तथा विद्यार्थियों एवं साधकों को उन्हीं के अनुकूल आचार-व्यवहार का अभ्यास कराना होगा।